नासेह बग़ल में आ कर दुश्मन हुआ हमारा
जाएगा कब इलाही मज्लिस से ख़ार दिल का
Ahmad Faraz
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Gulzar
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निगाहें जोड़ और आँखें चुरा टुक चल के फिर देखा
अदल से कर सल्तनत ऐ दिल तू तन के मुल्क में
दर्द-ए-दिल मेरी आह से पूछो
गली में उस की न देखा कभू किसी को मगर
कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी
तुम कि बैठे हुए इक आफ़त हो
मौसम-ए-गुल का मगर क़ाफ़िला जाता है कि आज
स्वाद-ए-ख़ाल के नुक़्ते की ख़ूबी
इस क़दर की सर्फ़ तस्ख़ीर-ए-परी-रूयाँ में उम्र
बैत-बहसी न कर ऐ फ़ाख़्ता गुलशन में कि आज
किस सितमगर का गुनाहगार हूँ अल्लाह अल्लाह
हम छनालों की छोड़ दी यारी