बैत-बहसी न कर ऐ फ़ाख़्ता गुलशन में कि आज
मिसरा-ए-सर्व से मौज़ूँ है मिरा मिसरा-ए-आह
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देखते सज्दे में आता है जो करता है निगाह
इन दिनों हम से जो वहशी की तरह भड़को हो
नासेह बग़ल में आ कर दुश्मन हुआ हमारा
कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी
फिर ख़बर इस फ़स्ल में यारो बहार आने की है
ख़ूबान-ए-जहाँ हों जिस से तस्ख़ीर
जब से तेरी नज़र पड़ी है झलक
कहें हम बहर-ए-बे-पायान-ए-ग़म की माहियत किस से
बस नहीं चलता जो उस दम उन के ऊपर गर पड़े
इस क़दर बस-कि रोज़ मिलने से
वो वहशी इस क़दर भड़का है सूरत से मिरे यारो
न कुछ सितम से तिरे आह आह करता हूँ