बदन पर कुछ मिरे ज़ाहिर नहीं और दिल में सोज़िश है
ख़ुदा जाने ये किस ने राख अंदर आग दाबी है
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हमारी अक़्ल-ए-बे-तदबीर पर तदबीर हँसती है
ऐसा करूँगा अब के गरेबाँ को तार तार
अभी मस्जिद-नशीन-ए-तारुम-ए-अफ़्लाक हो जावे
दे के दिल उस के हाथ अपने हाथ
मौसम-ए-गुल का मगर क़ाफ़िला जाता है कि आज
मैं अपने दस्त पर शब ख़्वाब में देखा कि अख़गर था
इस दौर के असर का जो पूछो बयाँ नहीं
मिरी बातों से अब आज़ुर्दा न होना साक़ी
तिरी भुवाँ की तेग़ जब आई नज़र मुझे
अगर रोते न हम तो देखते तुम
रुख़्सार के अरक़ का तिरे भाव देख कर
देखते सज्दे में आता है जो करता है निगाह