ऐसा करूँगा अब के गरेबाँ को तार तार
जो फिर किसी तरह से किसी से रफ़ू न हो
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अहल-ए-म'अनी जुज़ न बूझेगा कोई इस रम्ज़ को
जुम्बिश-ए-दिल नहीं बेजा तू किधर भूला है
दर-ओ-दीवार-ए-चमन आज हैं ख़ूँ से लबरेज़
ज़ुल्फ़ों की नागनी तो तिरी हम ने केलियाँ
तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम
तू सुब्ह-दम न नहा बे-हिजाब दरिया में
रखे है शीशा मिरा संग साथ रब्त-ए-क़दीम
बंदा अगर जहाँ में बजाए ख़ुदा नहीं
ख़ुदा के वास्ते उस से न बोलो
कई दीवान कह चुका 'हातिम'
कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी
छुपाता क्या है मुँह कब तक छुपेगा