छुपाता क्या है मुँह कब तक छुपेगा
तुझे सब शहर-ए-क़ातिल जानता है
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बे तिरे जान न थी जान मिरी जान के बीच
साहिबान-ए-क़स्र को मिलती नहीं है ब'अद-ए-मर्ग
ऐ मुसलमानो बड़ा काफ़िर है वो
जामा उर्यानी का क़ामत पर मिरी आया है रास्त
बंदा अगर जहाँ में बजाए ख़ुदा नहीं
कहो तो किस तरह आवे वहाँ नींद
कब ये दिल ओ दिमाग़ है मिन्नत-ए-शम्अ खींचिए
तरीक़त में अगर ज़ाहिद मुझे गुमराह जाने है
गुल की और बुलबुल की सोहबत को चमन का शाना है
कोई बतलाता नहीं आलम में उस के घर की राह
मैं अपने दस्त पर शब ख़्वाब में देखा कि अख़गर था
गदा को गर क़नाअत हो तो फाटा चीथड़ा बस है