दहन है तंग शकर और शकर है तिरा है कलाम
लबाँ हैं पिस्ता ज़नख़ सेब ओ चश्म हैं बादाम
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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मौसम-ए-गुल का मगर क़ाफ़िला जाता है कि आज
हाथ में देख कर तिरे मरहम
रहन-ए-शराब-ख़ाना किया शैख़ हैफ़ है
कई फ़रहाद हैं जूया तिरे शीरीं लब के
जब हुए 'हातिम' हम उस से आश्ना
शैख़ तू तो मुरीद-ए-हस्ती है
गुल की और बुलबुल की सोहबत को चमन का शाना है
जब तक कि गरेबान में यक तार रहेगा
नासूर की सिफ़त है न होगा कभू वो बंद
मज्लिस में रात गिर्या-ए-मस्ताँ था तुझ बग़ैर
क्यूँकि दीवाना बेड़ियाँ तोड़े
आशिक़ों के सैर करने का जहाँ ही और है