रुख़्सार के अरक़ का तिरे भाव देख कर
पानी के मोल निर्ख़ हुआ है गुलाब का
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ख़ाक कर देवे जला कर पहले फिर टिसवे बहाए
साहिबान-ए-क़स्र को मिलती नहीं है ब'अद-ए-मर्ग
अभी मस्जिद-नशीन-ए-तारुम-ए-अफ़्लाक हो जावे
शम्अ हर शाम तेरे रोने पर
कोई देता नहीं है दाद बे-दाद
ने काबा की हवस न हवा-ए-कुनिश्त है
पड़ी फिरती हैं कई लैला-ओ-शीरीं हर जा
ने शिकवा-मंद दिल से न अज़-दस्त-दीदा हूँ
आई ईद व दिल में नहीं कुछ हवा-ए-ईद
रिआयत बूझ तू माशूक़ का जौर
क्या उस की सिफ़त में गुफ़्तुगू है
औक़ात-ए-शैख़ गो कि सुजूद ओ क़याम है