अभी मस्जिद-नशीन-ए-तारुम-ए-अफ़्लाक हो जावे
जो सब कुछ छोड़ दिल तेरे क़दम की ख़ाक हो जावे
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दिल उस की तार-ए-ज़ुल्फ़ के बल में उलझ गया
मिरी बातों से अब आज़ुर्दा न होना साक़ी
आशिक़ का जहाँ में घर न देखा
जामा उर्यानी का क़ामत पर मिरी आया है रास्त
जुम्बिश-ए-दिल नहीं बेजा तू किधर भूला है
है कभू दिल में कभू जी में कभू आँखों के बीच
साफ़ दिल है तो आ कुदूरत छोड़
आशिक़ों के सैर करने का जहाँ ही और है
कई फ़रहाद हैं जूया तिरे शीरीं लब के
दहन है तंग शकर और शकर है तिरा है कलाम
ने शिकवा-मंद दिल से न अज़-दस्त-दीदा हूँ
हम को कब इंतिज़ार है फ़स्ल-ए-बहार हो न हो