आरिज़ से उस के ज़ुल्फ़ में क्यूँ-कर है रौशनी
ज़ुल्मात में तो नाम नहीं आफ़्ताब का
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दिल देखते ही उस को गिरफ़्तार हो गया
औक़ात-ए-शैख़ गो कि सुजूद ओ क़याम है
साक़ी मुझे ख़ुमार सताए है ला शराब
टूटे दिल को बना दिखावे
मज्लिस में रात गिर्या-ए-मस्ताँ था तुझ बग़ैर
ज़ाहिदो उठ जाओ मज्लिस से कि आज
मुद्दत से आरज़ू है ख़ुदा वो घड़ी करे
आ कर तिरी गली में क़दम-बोसी के लिए
रखे है शीशा मिरा संग साथ रब्त-ए-क़दीम
मैं उस की चश्म से ऐसा गिरा हूँ
इस दुख में हाए यार यगाने किधर गए
चमन में दहर के हर गुल है कान की सूरत