इस क़दर बस-कि रोज़ मिलने से
ख़ातिरों में ग़ुबार आवे है
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नज़र में बंद करे है तू एक आलम को
इश्क़ में पास-ए-जाँ नहीं है दुरुस्त
नौ-जवानों को देख कर 'हातिम'
होवे वो शोख़-चश्म अगर मुझ से चार चश्म
हाथ आता नहीं बग़ैर नसीब
तेरे आगे ले चुका ख़ुसरव लब-ए-शीरीं से काम
ख़ाक कर देवे जला कर पहले फिर टिसवे बहाए
चला जा मोहतसिब मस्जिद में 'हातिम' से न बहसा कर
हमें याद आवती हैं बातें उस गुल-रू की रह रह के
मालूम है किसू को कि वो आज शोला-ख़ू
तुम कि बैठे हुए इक आफ़त हो
आज दिलबर के नाम को रट रट