चला जा मोहतसिब मस्जिद में 'हातिम' से न बहसा कर
कि ताअत उस के मशरब में सुराही और प्याला है
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ऐ मुसलमानो बड़ा काफ़िर है वो
ये किस मज़हब में और मशरब में है हिन्दू मुसलमानो
नहीं है शिकवा अगर वो नज़र नहीं आता
आ कर तिरी गली में क़दम-बोसी के लिए
हो रहा है अब्र और करता है वो जानाना रक़्स
चमन ख़राब किया, हो ख़िज़ाँ का ख़ाना-ख़राब
मैं जितना ढूँढता हूँ उस को उतना ही नहीं पाता
मैं पीर हो गया हूँ और अब तक जवाँ है दर्द
शैख़ तू तो मुरीद-ए-हस्ती है
हम सीं मस्तों को बस है तेरी निगाह
एक बोसा माँगता है तुम से 'हातिम' सा गदा
है अबस 'हातिम' ये सब मज़मून ओ मअ'नी का तलाश