मस्जिद में सर पटकता है तो जिस के वास्ते
सो तो यहाँ है देख इधर आ ख़ुदा-शनास
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जो मिरे हम-अस्र हम-सोहबत थे सो सब मर गए
मालूम है किसू को कि वो आज शोला-ख़ू
मैं जाँ-ब-लब हूँ ऐ तक़दीर तेरे हाथों से
जुम्बिश-ए-दिल नहीं बेजा तू किधर भूला है
क्या हुआ गर शैख़ यारो हाजी-उल-हरमैन है
जिस ने आदम के तईं जाँ बख़्शा
ख़ूबान-ए-जहाँ हों जिस से तस्ख़ीर
दे के दिल हाथ तिरे अपने हाथ
जब आप से ही गुज़र गए हम
जब हुए 'हातिम' हम उस से आश्ना
इश्क़ नहीं कोई नहंग है यारो
अनल-हक़ की हक़ीक़त को जो हो मंसूर सो जाने