दे के दिल हाथ तिरे अपने हाथ
हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं
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शैख़ तू तो मुरीद-ए-हस्ती है
आ कर तिरी गली में क़दम-बोसी के लिए
मैं अपने दस्त पर शब ख़्वाब में देखा कि अख़गर था
जवाब-ए-नामा या देता नहीं या क़ैद करता है
समझते हम नहीं जो तुम इशारों बीच कहते हो
सुनो हिन्दू मुसलमानो कि फ़ैज़-ए-इश्क़ से 'हातिम'
कभू बीमार सुन कर वो अयादत को तो आता था
ब-तंग आया हूँ इस जाहिल के हाथों इस क़दर 'हातिम'
क़िस्सा-ए-मजनूँ-ओ-फ़र्हाद भी इक पर्दा है
ख़ूबान-ए-जहाँ हों जिस से तस्ख़ीर
ज़ाहिद को हम ने देख ख़राबात में कहा
कई दीवान कह चुका 'हातिम'