मुल्क-ए-अदम से दहर के मातम-कदे के बीच
आया न कौन कौन कि रोना न रो गया
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नासूर की सिफ़त है न होगा कभू वो बंद
कोई बतलाता नहीं आलम में उस के घर की राह
इतना मैं इंतिज़ार किया उस की राह में
शहर में फिरता है वो मय-ख़्वार मस्त
मशरब में तो दुरुस्त ख़राबातियों के है
मैं कुफ़्र ओ दीं से गुज़र कर हुआ हूँ ला-मज़हब
किस तरह पहुँचूँ मैं अपने यार किन पंजाब में
दिल देखते ही उस को गिरफ़्तार हो गया
दिल-ए-नाज़ुक मिरा हाथों में सँभाले रखियो
कहीं वो सूरत-ए-ख़ूबाँ हुआ है
एक दिन पूछा न 'हातिम' को कभू उस ने कि दोस्त
ये मसला शैख़ से पूछो हम इस झगड़े से फ़ारिग़ है