ऐ ख़िरद-मंदो मुबारक हो तुम्हें फ़र्ज़ानगी
हम हों और सहरा हो और हैरत हो और दीवानगी
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जो मय-ख़ाने में जाता था क़दम रखते झिझकता था
असीरों का नहीं कुछ शोर-ओ-ग़ुल ये आज ज़िंदाँ में
ज़ोर यारो आज हम ने फ़तह की जंग-ए-फ़लक
इस दुख में हाए यार यगाने किधर गए
जब आप से ही गुज़र गए हम
वो वहशी इस क़दर भड़का है सूरत से मिरे यारो
मुल्क-ए-अदम से दहर के मातम-कदे के बीच
हाजत चराग़ की है कब अंजुमन में दिल के
इश्क़ नहीं कोई नहंग है यारो
मस्जिद में सर पटकता है तो जिस के वास्ते
मैं उस की चश्म से ऐसा गिरा हूँ
दर्द तू मेरे पास से मरते तलक न जाइयो