मज़हर-ए-हक़ कब नज़र आता है इन शैख़ों के तईं
बस-कि आईने पर इन आहन-दिलों के ज़ंग है
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दर-ओ-दीवार-ए-चमन आज हैं ख़ूँ से लबरेज़
हम तिरी राह में जूँ नक़्श-ए-क़दम बैठे हैं
हमारी गुफ़्तुगू सब से जुदा है
कई दीवान कह चुका 'हातिम'
तिरी निगह से गए खुल किवाड़ छाती के
मेरा माशूक़ है मज़ों में भरा
दुनिया ख़याल-ओ-ख़्वाब है मेरी निगाह में
नज़र में बंद करे है तू एक आलम को
जो अज़ल में क़लम चली सो चली
तुम्हारी देख सज ऐ तंग-पोशो
ख़ुदा को जिस से पहुँचें हैं वो और ही राह है ज़ाहिद
रखता हूँ मैं हक़ पर नज़र कोई कुछ कहो कोई कुछ कहो