पगड़ी अपनी यहाँ सँभाल चलो
और बस्ती न हो ये दिल्ली है
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इस वास्ते निकलूँ हूँ तिरे कूचे से बच बच
रुख़्सार के अरक़ का तिरे भाव देख कर
नज़र में उस की जो चढ़ता है सो जीता नहीं बचता
छुपाता क्या है मुँह कब तक छुपेगा
फड़कूँ तो सर फटे है न फड़कूँ तो जी घटे
ऐ दिल न कर तू फ़िक्र पड़ेगा बला के हाथ
तुम तो बैठे हुए पुर-आफ़त हो
हक़ से मिलना गेरवे कपड़ों उपर मौक़ूफ़ नईं
क्या मदरसे में दहर के उल्टी हवा बही
चाँद से तुझ को जो दे निस्बत सो बे-इंसाफ़ है
जवाब-ए-नामा या देता नहीं या क़ैद करता है
हम छनालों की छोड़ दी यारी