पहन कर जामा बसंती जो वो निकला घर सूँ
देख आँखों में मिरी फूल गई है सरसों
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'हातिम' उस ज़ालिम के अबरू को न छेड़
यार निकला है आफ़्ताब की तरह
करूँ हूँ रात दिन फेरे कई फेरे मियाँ साहिब
इस दौर के असर का जो पूछो बयाँ नहीं
है अबस 'हातिम' ये सब मज़मून ओ मअ'नी का तलाश
हमारी गुफ़्तुगू सब से जुदा है
खेल सब छोड़ खेल अपना खेल
कलेजा मुँह को आया और नफ़स करने लगा तंगी
नज़र से जब अकस्ता है मिरा दिल
ने शिकवा-मंद दिल से न अज़-दस्त-दीदा हूँ
ख़ुम-ख़ाना मय-कशों ने किया इस क़दर तही
जुम्बिश-ए-दिल नहीं बेजा तू किधर भूला है