खुल गई जिस की आँख मिस्ल-ए-हबाब
घर को अपने ख़राब जाने है
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स्वाद-ए-ख़ाल के नुक़्ते की ख़ूबी
तू जो कहता है बोलता क्या है
अभी मस्जिद-नशीन-ए-तारुम-ए-अफ़्लाक हो जावे
हम छनालों की छोड़ दी यारी
दे के दिल उस के हाथ अपने हाथ
नासेह बग़ल में आ कर दुश्मन हुआ हमारा
तिरे रुख़्सार से बे-तरह लिपटी जाए है ज़ालिम
ब-तंग आया हूँ इस जाहिल के हाथों इस क़दर 'हातिम'
किसू मशरब में और मज़हब में
ख़ुदा को जिस से पहुँचें हैं वो और ही राह है ज़ाहिद
इस ज़माने में न हो क्यूँकर हमारा दिल उदास
रखे है शीशा मिरा संग साथ रब्त-ए-क़दीम