मोतकिफ़ हो शैख़ अपने दिल में मस्जिद से निकल
साहिब-ए-दिल की बग़ल में दिल इबादत-ख़ाना है
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जिस ने पाया उसे सो है ख़ामोश
दे के दिल उस के हाथ अपने हाथ
अज़ल से दिल है सज्दा में तिरे अबरू के मस्जिद में
नहीं है शिकवा अगर वो नज़र नहीं आता
नमाज़ियों ने तुझ अबरू को देख मस्जिद में
क्यूँ मोज़ाहिम है मेरे आने से
तुम कि बैठे हुए इक आफ़त हो
तब्अ तेरी अजब तमाशा है
आरिज़ से उस के ज़ुल्फ़ में क्यूँ-कर है रौशनी
कशिश से दिल की उस अबरू-कमाँ को हम रखा बहला
रोना वही जो ख़ौफ़-ए-इलाही से रोइए
शैख़ तू तो मुरीद-ए-हस्ती है