क्यूँ मोज़ाहिम है मेरे आने से
कुइ तिरा घर नहीं ये रस्ता है
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हक़ रखे उस को सलामत हिन्द में
बाग़ में तू कभू जो हँसता है
नज़र में बंद करे है तू एक आलम को
मुद्दत से ख़्वाब में भी नहीं नींद का ख़याल
मैं उस की चश्म से ऐसा गिरा हूँ
इतना मैं इंतिज़ार किया उस की राह में
असीरों का नहीं कुछ शोर-ओ-ग़ुल ये आज ज़िंदाँ में
हम सीं मस्तों को बस है तेरी निगाह
हैराँ हैं अपने अपने जो देखा सो काम में
सच अगर पूछो तो ना-पैदा है यक-रू आश्ना
मैं कुफ़्र ओ दीं से गुज़र कर हुआ हूँ ला-मज़हब
नासेह बग़ल में आ कर दुश्मन हुआ हमारा