ख़ाकसारों का दिल ख़ज़ीना है
इस ज़मीं में भी कुछ दफ़ीना है
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आज दिलबर के नाम को रट रट
घर-ब-घर है वो मस्त-ए-इश्वा-ओ-नाज़
ने काबा की हवस न हवा-ए-कुनिश्त है
देखा किसी ने हम से ज़माने ने क्या किया
है अबस 'हातिम' ये सब मज़मून ओ मअ'नी का तलाश
क्या उस की सिफ़त में गुफ़्तुगू है
चला जाता था 'हातिम' आज कुछ वाही-तबाही सा
ऐ मुसलमानो बड़ा काफ़िर है वो
कभू तू रो तो उस को ख़ाक ऊपर जा के ऐ लैला
हम तिरी राह में जूँ नक़्श-ए-क़दम बैठे हैं
तू जो कहता है बोलता क्या है
रिआयत बूझ तू माशूक़ का जौर