वक़्त की डोर ख़ुदा जाने कहाँ से टूटे
किस घड़ी सर पे ये लटकी हुई तलवार गिरे
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जिस दम क़फ़स में मौसम-ए-गुल की ख़बर गई
रुख़्सार आज धो कर शबनम ने पंखुड़ी के
जिहत की तलाश
मरीज़-ए-ग़म के सहारो कोई तो बात करो
वक़्त ने ये कहा है रुक रुक कर
आग के दरमियान से निकला
लरज़ता दीप
बेजा नवाज़िशात का बार-ए-गराँ नहीं
ख़िज़ाँ के चाँद ने पूछा ये झुक के खिड़की में
जहाँ तलक भी ये सहरा दिखाई देता है
ख़मोशी बोल उठ्ठे हर नज़र पैग़ाम हो जाए
वही झुकी हुई बेलें वही दरीचा था