भूक में इश्क़ की तहज़ीब भी मर जाती है
चाँद आकाश पे थाली की तरह लगता है
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परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
मैं जानता हूँ ख़ुशामद-पसंद कितना है
एक सुराख़ सा कश्ती में हुआ चाहता है
डाका
नदी का आब दिया है तो कुछ बहाव भी दे
झूटी मोहब्बत
आज आँखों में कोई रात गए आएगा
ख़ुद को इतना भी न बचाया कर
घर के दीवार-ओ-दर पे शाम ही से
हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
दर्द में शिद्दत-ए-एहसास नहीं थी पहले
फूल खिला दे शाख़ों पर पेड़ों को फल दे मालिक