बिछड़ के भी वो मिरे साथ ही रहा हर दम
सफ़र के बा'द भी मैं रेल में सवार रहा
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अब इस से मिलने की उम्मीद क्या गुमाँ भी नहीं
राह में घर के इशारे भी नहीं निकलेंगे
शाइ'री रूह में तहलील नहीं हो पाती
दर्द में शिद्दत-ए-एहसास नहीं थी पहले
भूक में इश्क़ की तहज़ीब भी मर जाती है
मेरे होंटों पे ख़ामुशी है बहुत
दूसरे दर्जे की पिछली क़तार का आदमी
हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
बात से बात की गहराई चली जाती है
बस इक पुकार पे दरवाज़ा खोल देते हैं
इस बार उस की आँखों में इतने सवाल थे
चढ़ा हुआ है जो दरिया उतरने वाला है