बस इक पुकार पे दरवाज़ा खोल देते हैं
ज़रा सा सब्र भी इन आँसुओं से होता नहीं
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घर के दीवार-ओ-दर पे शाम ही से
अकेले रहने की ख़ुद ही सज़ा क़ुबूल की है
परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
फूल खिला दे शाख़ों पर पेड़ों को फल दे मालिक
हुआ न ख़त्म अज़ाबों का सिलसिला अब तक
इस बार उस की आँखों में इतने सवाल थे
मैं जानता हूँ ख़ुशामद-पसंद कितना है
हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार में रहने के लिए
जाने कैसा रिश्ता है रहगुज़र का क़दमों से
मैं सो रहा हूँ तिरे ख़्वाब देखने के लिए
ज़मीन ले के वो आए तो घर बनाया जाए
ख़ुद को इतना भी न बचाया कर