ज़रा नक़ाब-ए-हसीं रुख़ से तुम उलट देना
हम अपने दीदा-ओ-दिल का ग़ुरूर देखेंगे
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मैं बताऊँ फ़र्क़ नासेह जो है मुझ में और तुझ में
नग़्मा-ए-इश्क़ सुनाता हूँ मैं इस शान के साथ
इश्क़ का कोई ख़ैर-ख़्वाह तो है
शाम-ए-ग़म करवट बदलता ही नहीं
बेकार गई आड़ तिरे पर्दा-ए-दर की
आदाब-ए-आशिक़ी से बेगाना कह रही है
मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी
करने दो अगर क़त्ताल-ए-जहाँ तलवार की बातें करते हैं
अभी जज़्बा-ए-शौक़ कामिल नहीं है
जज़्बात की रौ में बह गया हूँ
मौसम-ए-गुल साथ ले कर बर्क़ ओ दाम आ ही गया
दिल की तरफ़ 'शकील' तवज्जोह ज़रूर हो