घर में कुछ भी नहीं तारीक सी ख़ुशबू के सिवा
कुछ चमकता नहीं अब ख़ौफ़ के जुगनू के सिवा
दम-ए-कोहसार में ढूँडा तो न निकला कुछ भी
बर्फ़ पर छिड़की हुई ख़ून की ख़ुशबू के सिवा
उस का छुपना था कि आँखों में मिरी कुछ न रहा
सुरमई सब्ज़ मुनव्वर रम-ए-आहू के सिवा
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रिंदों को तिरे आरज़ू-ए-ख़ुश्क-लबी है
चेहरे का आफ़्ताब दिखाई न दे तो फिर
सुर्ख़ सीधा सख़्त नीला दूर ऊँचा आसमाँ
मन अरफ़ा नफ़्सहू
तारीक रगें लहू से रौशन कर दे
लग़्ज़िश पा-ए-होश का हर्फ़-ए-जवाज़ ले के हम
माह-ए-मुनीर
शोर-ए-तूफ़ान-ए-हवा है बे-अमाँ सुनते रहो
तीन शामों की एक शाम
रफ़्तार ओ सदा गुम्बद-ए-अफ़्लाक में आए
मौसम-ए-संग-ओ-रंग से रब्त-ए-शरार किस को था
अँधेरी शब से एक ला-हासिल