मैं किसी दूसरे पहलू से उसे क्यूँ सोचूँ
यूँ भी अच्छा है वो जैसा नज़र आता है मुझे
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यही रस्सी मिली थी
तन से जब तक साँस का रिश्ता रहेगा
भीड़ में जब तक रहते हैं जोशीले हैं
कुतिया
दूसरे हाथ का दुख
हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम
लोग सह लेते थे हँस कर कभी बे-ज़ारी भी
लरज़ते काँपते हाथों से बूढ़ा
इबादत के वक़्त में हिस्सा
रात थी जब तुम्हारा शहर आया
नहीं मैं हौसला तो कर रहा था
इंतिहा तक बात ले जाता हूँ मैं