उठे हैं हाथ तो अपने करम की लाज बचा
वगरना मेरी दुआ क्या मिरी तलब क्या है
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बे-कराँ समझा था ख़ुद को कैसे नादानों में था
न पूछ मर्ग-ए-शनासाई का सबब क्या है
आरज़ू जीने की थी इम्कान जीने का न था
दिल ही गिर्दाब-ए-तमन्ना है यहीं डूबते हैं
प्यासा जो मेरे ख़ूँ का हुआ था सो ख़्वाब था
वही रंग-ए-रुख़ पे मलाल था ये पता न था
शरीक-ए-ग़म कोई कब मो'तबर निकलता है
न कोई नक़्श न पैकर सराब चारों तरफ़
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को चुप आस्तीं को तर पा कर
मैं भी आवारा हूँ तेरे सात आवारा हवा
अपने सीने को मिरे ज़ख़्मों से भरने वाली