मैं हूँ तो दिवाना प किसी ज़ुल्फ़ का नहीं हूँ
वल्लाह कि रखता नहीं यक तार किसी का
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वो ज़ुल्फ़ है तो हर्फ़-ए-ततार-ओ-ख़ुतन ग़लत
मकतब-ए-इश्क़ का मोअल्लिम हूँ
जिस कूँ पिव के हिज्र का बैराग है
मैं कहा क्या अरक़ है तुझ रुख़ पर
नयन की पुतली में ऐ सिरीजन तिरा मुबारक मक़ाम दिस्ता
नियाज़-ए-बे-ख़ुदी बेहतर नमाज़-ए-ख़ुद-नुमाई सीं
जो तुझे देख के मबहूत हुआ
फ़िदा कर जान अगर जानी यही है
दो-रंगी ख़ूब नईं यक-रंग हो जा
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
फ़स्ल-ए-गुल का ग़म दिल-ए-नाशाद पर बाक़ी रहा
तेरी भँवों की तेग़ के जो रू-ब-रू हुआ