मकतब-ए-इश्क़ का मोअल्लिम हूँ
क्यूँ न होए दर्स-ए-यार की तकरार
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बोलता हूँ जो वो बुलाता है
क्या बला का है नशा इश्क़ के पैमाने में
ऐ शोख़ गुलिस्ताँ मैं नहीं ये गुल-ए-रंगीं
जिस कूँ पियो के हिज्र का बैराग है
जिस कूँ तुझ ग़म सीं दिल-शिगाफ़ी है
क़द तिरा सर्व-ए-रवाँ था मुझे मालूम न था
हाकिम-ए-इश्क़ ने जब अक़्ल की तक़्सीर सुनी
इश्क़ का नाम गरचे है मशहूर
ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीन-ए-यार क़हरी है
कौन कहता है जफ़ा करते हो तुम
ऐ अक़्ल निकल जा कि धुआँ आह का नहीं है
आया पिया शराब का प्याला पिया हुआ