बोलता हूँ जो वो बुलाता है
तन के पिंजरे में उस का तोता हूँ
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कहते हैं तिरी ज़ुल्फ़ कूँ देख अहल-ए-शरीअत
बुत-परस्तों कूँ है ईमान-ए-हक़ीक़ी वस्ल-ए-बुत
इश्क़ दोनों तरफ़ सूँ होता है
शर्बत-ए-वस्ल पिला जा लब-ए-शीरीं की क़सम
हिरन सब हैं बराती और दिवाना बन का दूल्हा है
हमारी बात मोहब्बत सीं तुम जो गोश करो
पुर-ख़ूँ है जिगर लाला-ए-सैराब की सौगंद
'सिराज' इन ख़ूब-रूयों का अजब मैं क़ाएदा देखा
कभी सम्त-ए-ग़ैब सीं क्या हुआ कि चमन ज़ुहूर का जल गया
कभी जो आह के मिसरे कूँ याद करता हूँ
डूब जाता है मिरा जी जो कहूँ क़िस्सा-ए-दर्द
इश्क़ की जो लगन नहीं देखा