कभी सम्त-ए-ग़ैब सीं क्या हुआ कि चमन ज़ुहूर का जल गया
मगर एक शाख़-ए-निहाल-ए-ग़म जिसे दिल कहो सो हरी रही
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ख़ाक हूँ ए'तिबार की सौगंद
ऐ दिल-ए-बे-अदब उस यार की सौगंद न खा
मस्जिद में तुझ भँवों की ऐ क़िबला-ए-दिल-ओ-जाँ
नहीं बुझती है प्यास आँसू सीं लेकिन
अव्वल सीं दिल मिरा जो गिरफ़्तार था सो है
कभी ला ला मुझे देते हो अपने हात सीं प्याला
ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही
उश्शाक़ का दिल दाग़ का अंदाज़ा हुआ महज़
खुल गए उस की ज़ुल्फ़ के देखे
था बहाना मुझे ज़ंजीर के हिल जाने का
यार को बे-हिजाब देखा हूँ
जाता है मिरा जान निपट प्यास लगी है