जाता है मिरा जान निपट प्यास लगी है
मंगता हूँ ज़रा शर्बत-ए-दीदार किसी का
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ऐ अक़्ल निकल जा कि धुआँ आह का नहीं है
ऐ दोस्त तलत्तुफ़ सीं मिरे हाल कूँ आ देख
तिरी निगाह की अनियाँ जिगर में सलियाँ हैं
मैं हूँ तो दिवाना प किसी ज़ुल्फ़ का नहीं हूँ
इश्क़ ने ख़ूँ किया है दिल जिस का
पी कर शराब-ए-शौक़ कूँ बेहोश हो बेहोश हो
वो ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन लगती नहीं हात
नियाज़-ए-बे-ख़ुदी बेहतर नमाज़-ए-ख़ुद-नुमाई सीं
पेच खा खा कर हमारी आह में गिर्हें पड़ीं
नयन की पुतली में ऐ सिरीजन तिरा मुबारक मक़ाम दिस्ता
अगर कुछ होश हम रखते तो मस्ताने हुए होते
गुल-रुख़ों ने किए हैं सैर का ठाट