वो ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन लगती नहीं हात
मुझे सारी परेशानी यही है
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फ़स्ल-ए-गुल का ग़म दिल-ए-नाशाद पर बाक़ी रहा
तेरी भँवों की तेग़ के जो रू-ब-रू हुआ
आया पिया शराब का प्याला पिया हुआ
कहते हैं तिरी ज़ुल्फ़ कूँ देख अहल-ए-शरीअत
हर हर वरक़ पे क्यूँ कि लिखूँ दास्तान-ए-हिज्र
बात कर दिल सती हिजाब निकाल
देखा है जिस ने यार के रुख़्सार की तरफ़
दो-रंगी ख़ूब नईं यक-रंग हो जा
जब सें तुझ इश्क़ की गरमी का असर है मन में
सर्व-ए-गुलशन पर सुख़न उस क़द का बाला हो गया
कान में है तेरे मोती आब-दार
दो-रंगी ख़ूब नहीं यक-रंग हो जा