पेच खा खा कर हमारी आह में गिर्हें पड़ीं
है यही सुमरन तिरी दरकार कोई माला नहीं
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है दिल में ख़याल-ए-गुल-ए-रुख़्सार किसी का
क़द तिरा सर्व-ए-रवाँ था मुझे मालूम न था
क्या होएगा सुनोगे अगर कान धर के तुम
हक़ में उश्शाक़ के क़यामत है
हमारी आँखों की पुतलियों में तिरा मुबारक मक़ाम हैगा
सीना-साफ़ी की है जिसे ऐनक
सुने रातों कूँ गर जंगल में मेरे ग़म की वावैला
मख़मूर चश्मों की तबरीद करने कूँ शबनम है सरदाब शोरों की मानिंद
जान ओ दिल सीं मैं गिरफ़्तार हूँ किन का उन का
कभी सम्त-ए-ग़ैब सीं क्या हुआ कि चमन ज़ुहूर का जल गया
देखा है जिस ने यार के रुख़्सार की तरफ़
कहाँ है गुल-बदन मोहन पियारा