हक़ में उश्शाक़ के क़यामत है
क्या करम क्या इताब क्या दुश्नाम
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सनम जब चीरा-ए-ज़र-तार बाँधे
क़ातिल ने अदा का किया जब वार उछल कर
मकतब-ए-इश्क़ का मोअल्लिम हूँ
अपना जमाल मुझ कूँ दिखाया रसूल आज
तुम्हारी ज़ुल्फ़ का हर तार मोहन
यार को बे-हिजाब देखा हूँ
ग़म ने बाँधा है मिरे जी पे खला हाए खला
आलम के दोस्तों में मुरव्वत नहीं रही
जाता है मिरा जान निपट प्यास लगी है
जुनूँ के शहर में नीं कम-अयार कूँ हुर्मत
ऐ दिल-ए-बे-अदब उस यार की सौगंद न खा
पकड़ा हूँ किनारा-ए-जुदाई