क़ातिल ने अदा का किया जब वार उछल कर
मैं ने सिपर-ए-दिल कूँ किया ओट सँभल कर
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किया ग़म ने सरायत बे-निहायत
मज्लिस-ए-ऐश गर्म हो या-रब
नींद सीं खुल गईं मिरी आँखें सो देखा यार कूँ
जाँ-सिपारी दाग़ कत्था चूना है चश्म-ए-इन्तिज़ार
फ़स्ल-ए-गुल का ग़म दिल-ए-नाशाद पर बाक़ी रहा
मस्जिद में तुझ भँवों की ऐ क़िबला-ए-दिल-ओ-जाँ
हिरन सब हैं बराती और दिवाना बन का दूल्हा है
मुस्तइद हूँ तिरे ज़ुल्फ़ों की सियाही ले कर
मस्जिद वहशत में पढ़ता है तरावीह-ए-जुनूँ
रिश्ते में तिरी ज़ुल्फ़ के है जान हमारा
हर तरफ़ यार का तमाशा है