मुस्तइद हूँ तिरे ज़ुल्फ़ों की सियाही ले कर
सफ़्हा-ए-नामा-ए-आमाल कूँ काला करने
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नज़र-ए-तग़ाफ़ुल-ए-यार का गिला किस ज़बाँ सीं करूँ बयाँ
मज्लिस-ए-ऐश गर्म हो या-रब
जाँ-सिपारी दाग़ कत्था चूना है चश्म-ए-इन्तिज़ार
जानाँ पे जी निसार हुआ क्या बजा हुआ
'सिराज' इन ख़ूब-रूयों का अजब मैं क़ाएदा देखा
मेरे जिगर के दर्द का चारा कब आएगा
जाता है मिरा जान निपट प्यास लगी है
क़ातिल ने अदा का किया जब वार उछल कर
आया पिया शराब का प्याला पिया हुआ
सनम हज़ार हुआ तो वही सनम का सनम
है जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ में तिरी तीर की आवाज़
अगर कुछ होश हम रखते तो मस्ताने हुए होते