क्या होएगा सुनोगे अगर कान धर के तुम
गुज़री बिरह की रात जो मुझ पर कहानियाँ
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सीना-साफ़ी की है जिसे ऐनक
मुस्तइद हूँ तिरे ज़ुल्फ़ों की सियाही ले कर
क्या बला सेहर हैं सजन के नयन
जिस दिन सीं मैं यार बूझता हूँ
तहक़ीक़ की नज़र सीं आख़िर कूँ हम ने देखा
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
तुझ ज़ुल्फ़ की शिकन है मानिंद-ए-दाम गोया
मज्लिस-ए-ऐश गर्म हो या-रब
मस्जिद में तुझ भँवों की ऐ क़िबला-ए-दिल-ओ-जाँ
तुम्हारी ज़ुल्फ़ का हर तार मोहन
कभी तुम मोल लेने हम कूँ हँस हँस भाव करते हो
वहशत को मिरी देख कि मजनूँ ने कहा बस