शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही
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अबस इन शहरियों में वक़्त अपना हम किए ज़ाए
किया है जब सीं अमल बे-ख़ुदी के हाकिम ने
ऐ दिल-ए-बे-अदब उस यार की सौगंद न खा
डूब जाता है मिरा जी जो कहूँ क़िस्सा-ए-दर्द
सर्व-ए-गुलशन पर सुख़न उस क़द का बाला हो गया
ऐ शोख़ गुलिस्ताँ मैं नहीं ये गुल-ए-रंगीं
कहते हैं तिरी ज़ुल्फ़ कूँ देख अहल-ए-शरीअत
है जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ में तिरी तीर की आवाज़
हाकिम-ए-इश्क़ ने जब अक़्ल की तक़्सीर सुनी
तिरी ज़ुल्फ़ ज़ुन्नार का तार है
कौन कहता है जफ़ा करते हो तुम
बात कर दिल सती हिजाब निकाल