उठते जाते हैं बज़्म-ए-आलम से
आने वाले तुम्हारी महफ़िल के
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हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी
तमाम उम्र कमी की कभी न पानी ने
मुझे है फ़िक्र ख़त भेजा है जब से उस गुल-ए-तर को
याद-ए-अय्याम कि हम-रुतबा-ए-रिज़वाँ हम थे
अदम से दहर में आना किसे गवारा था
दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर
वो खड़े कहते हैं मेरी लाश पर
बढ़ते बढ़ते आतिश-ए-रुख़्सार लौ देने लगी
दो दमों से है फ़क़त गोर-ए-ग़रीबाँ आबाद
सू-ए-दयार ख़ंदा-ज़न वो यार-ए-जानी फिर गया
जलूँगा मैं कि दिल उस बुत का ग़ैर पर आया
वो इंतिहा के हैं नाज़ुक मैं सख़्त-जाँ हूँ कमाल