बढ़ते बढ़ते आतिश-ए-रुख़्सार लौ देने लगी
रफ़्ता रफ़्ता कान के मोती शरारे हो गए
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कभी तो शहीदों की क़ब्रों पे आओ
दो दमों से है फ़क़त गोर-ए-ग़रीबाँ आबाद
तमाम उम्र कमी की कभी न पानी ने
शोला-ए-हुस्न से था दूद-ए-दिल अपना अव्वल
नज्द से जानिब-ए-लैला जो हवा आती है
वो इंतिहा के हैं नाज़ुक मैं सख़्त-जाँ हूँ कमाल
वहशत-ए-दिल ये बढ़ी छोड़ दिए घर सब ने
जिस तरफ़ बैठते थे वस्ल में आप
वो खड़े कहते हैं मेरी लाश पर
ता-सहर की है फ़ुग़ाँ जान के ग़ाफ़िल मुझ को
मौज-ए-दरिया से बला की चाहिए कश्ती मुझे
हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी