जिस तरफ़ बैठते थे वस्ल में आप
उसी पहलू में दर्द रहता है
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न डरे बर्क़ से दिल की है कड़ी मेरी आँख
नज्द से जानिब-ए-लैला जो हवा आती है
मुँह जो फ़ुर्क़त में ज़र्द रहता है
सू-ए-दयार ख़ंदा-ज़न वो यार-ए-जानी फिर गया
पड़ गई क्या निगह-ए-मस्त तिरे साक़ी की
बहुत मुज़िर दिल-ए-आशिक़ को आह होती है
दो दमों से है फ़क़त गोर-ए-ग़रीबाँ आबाद
हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी
बाग़ में फूलों को रौंद आई सवारी आप की
कब अपनी ख़ुशी से वो आए हुए हैं
मैं बाग़ में हूँ तालिब-ए-दीदार किसी का
वो इंतिहा के हैं नाज़ुक मैं सख़्त-जाँ हूँ कमाल