पड़ गई क्या निगह-ए-मस्त तिरे साक़ी की
लड़खड़ाते हुए मय-ख़्वार चले आते हैं
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बाग़ में फूलों को रौंद आई सवारी आप की
वो खड़े कहते हैं मेरी लाश पर
कब अपनी ख़ुशी से वो आए हुए हैं
चला घर से वो बहर-ए-हुस्न अल्लाह रे कशिश दिल की
ता-सहर की है फ़ुग़ाँ जान के ग़ाफ़िल मुझ को
अदम से दहर में आना किसे गवारा था
कभी तो शहीदों की क़ब्रों पे आओ
बार-ए-ख़ातिर ही अगर है तो इनायत कीजे
मुँह जो फ़ुर्क़त में ज़र्द रहता है
सू-ए-दयार ख़ंदा-ज़न वो यार-ए-जानी फिर गया
दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर
जिस तरफ़ बैठते थे वस्ल में आप