क़ाफ़िले रात को आते थे उधर जान के आग
दश्त-ए-ग़ुर्बत में जिधर ऐ दिल-ए-सोज़ाँ हम थे
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मौज-ए-दरिया से बला की चाहिए कश्ती मुझे
उन्स है ख़ाना-ए-सय्याद से गुलशन कैसा
वो खड़े कहते हैं मेरी लाश पर
वहशत-ए-दिल ये बढ़ी छोड़ दिए घर सब ने
गया शबाब पर इतना रहा तअल्लुक़-ए-इश्क़
अदम से दहर में आना किसे गवारा था
हर तरफ़ हश्र में झंकार है ज़ंजीरों की
वो इंतिहा के हैं नाज़ुक मैं सख़्त-जाँ हूँ कमाल
सू-ए-दयार ख़ंदा-ज़न वो यार-ए-जानी फिर गया
मुँह जो फ़ुर्क़त में ज़र्द रहता है
चिराग़-दाग़ मैं दिन से जलाए बैठा हूँ
जोश पर थीं सिफ़त-ए-अब्र-ए-बहारी आँखें