गया शबाब पर इतना रहा तअल्लुक़-ए-इश्क़
दिल ओ जिगर में तपक गाह गाह होती है
Anwar Masood
Javed Akhtar
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Habib Jalib
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Rahat Indori
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उन्स है ख़ाना-ए-सय्याद से गुलशन कैसा
बहुत मुज़िर दिल-ए-आशिक़ को आह होती है
बढ़ते बढ़ते आतिश-ए-रुख़्सार लौ देने लगी
मुंतज़िर तेरे हैं चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ खोले हुए
दिल जल के रह गए ज़क़न-ए-रश्क-ए-माह पर
महफ़िल से उठाने के सज़ा-वार हमीं थे
आमद आमद है ख़िज़ाँ की जाने वाली है बहार
बार-ए-ख़ातिर ही अगर है तो इनायत कीजे
दो दमों से है फ़क़त गोर-ए-ग़रीबाँ आबाद
सू-ए-दयार ख़ंदा-ज़न वो यार-ए-जानी फिर गया
जोश पर थीं सिफ़त-ए-अब्र-ए-बहारी आँखें
हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी