आमद आमद है ख़िज़ाँ की जाने वाली है बहार
रोते हैं गुलज़ार के दर बाग़बाँ खोले हुए
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जलूँगा मैं कि दिल उस बुत का ग़ैर पर आया
उठते जाते हैं बज़्म-ए-आलम से
मुंतज़िर तेरे हैं चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ खोले हुए
बहुत मुज़िर दिल-ए-आशिक़ को आह होती है
मैं बाग़ में हूँ तालिब-ए-दीदार किसी का
अदम से दहर में आना किसे गवारा था
उन्स है ख़ाना-ए-सय्याद से गुलशन कैसा
हम किस को दिखाते शब-ए-फ़ुर्क़त की उदासी
मुझ से क्या पूछते हो दाग़ हैं दिल में कितने
हर तरफ़ हश्र में झंकार है ज़ंजीरों की
मौज-ए-दरिया से बला की चाहिए कश्ती मुझे
जिस तरफ़ बैठते थे वस्ल में आप