जलूँगा मैं कि दिल उस बुत का ग़ैर पर आया
उड़ेगी आग कि पत्थर गिरा है पत्थर पर
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याद-ए-अय्याम कि हम-रुतबा-ए-रिज़वाँ हम थे
बहुत मुज़िर दिल-ए-आशिक़ को आह होती है
मैं बाग़ में हूँ तालिब-ए-दीदार किसी का
मुझे है फ़िक्र ख़त भेजा है जब से उस गुल-ए-तर को
तमाम उम्र कमी की कभी न पानी ने
महफ़िल से उठाने के सज़ा-वार हमीं थे
अपनी फ़रहत के दिन ऐ यार चले आते हैं
वो खड़े कहते हैं मेरी लाश पर
गया शबाब पर इतना रहा तअल्लुक़-ए-इश्क़
मुझ से क्या पूछते हो दाग़ हैं दिल में कितने
बार-ए-ख़ातिर ही अगर है तो इनायत कीजे
शोला-ए-हुस्न से था दूद-ए-दिल अपना अव्वल